ज्ञानार्जन और सत्य के मानदंड
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
नमस्ते
पिछले दो ब्लॉग में आपने देखा की एक साधक अपने अनुभवों पर केवल व्यावहारिक रूप से विश्वास करता क्योंकि अनुभव प्राप्त करने के लिए उसे इन्द्रियों का सहारा लेना पड़ता है जो उसे कभी भी छल सकती हैं। साथ ही आपने यह भी जाना की साधक जीवन को सरल रखने का प्रयास करता है जिससे वह बंधनमुक्त रह कर सत्य की खोज में स्वतंत्रता से अपने मनुष्य जीवन का उपयोग कर सकें।
सत्य तक पहुँचने के लिए सबसे पहले साधक को यह जानना होता है कि सत्य है क्या और इसका ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है। आज के ब्लॉग में मैं अपने गुरु की कृपा से सरल और सीधे विधि से ज्ञान प्राप्त करने के साधन और सत्य के मानदंड पर प्रकाश डालने का प्रयास करूंगा जिससे नए साधक जो सत्य की खोज में हैं वो सही दिशा में आगे बढ़ सकें। यह लेख उन साधकों के लिए, जो अद्वैत की अवस्था तक पहुँचना चाहते है और अपने परम सत्य को जानना चाहते हैं, बहुत जरूरी है क्योंकि ये एक आधारस्तंभ रहेगा उनके भविष्य के प्रयासों के लिए।
ज्ञान के साधन
ज्ञान क्या है ?
आपको जितने भी अनुभव होते हैं उन अनुभवों में सुसंगत, तार्किक और क्रमिक सम्बन्ध निरंतर बनता रहता है। ये पारस्परिक संबंधित अनुभव ही ज्ञान कहलाता है और ये ज्ञान चित्त में स्मृति में संयोजित होता है। जैसे अगर आप एक गरम तवा को ऊँगली से छूते हैं तो आपकी ऊँगली में जलन का अनुभव होगा जिससे दर्द का अनुभव होगा। तो ये एक ज्ञान कारण-प्रभाव के रूप में आपके स्मृति में संयोजित हो जायेगा की गरम तवा को छूने से दर्द होता है। इसी तरह से ज्ञान कई प्रकार से स्मृति में संयोजित होता रहता है जैसे कर्ता-कर्म, कारण-प्रभाव, पदानुक्रम, नाम-रूप आदि।
अपरोक्ष अनुभव : अपरोक्ष अनुभव ज्ञान पाने का सीधा तरीका है। यहाँ साधक अपने इन्द्रियों के माध्यम से किसी भी विषय का अनुभव लेता है जो ज्ञान के रूप में उसके स्मृति में संचित हो जाता है। इस साधन से साधक ज्ञान पाने के लिए किसी पर आश्रित नहीं रहता उसे स्वयं ही ज्ञात हो जाता है। जैसे चीनी का स्वाद आपको खुद ही चख कर हो सकता है और कुछ भी करके आप चीनी के स्वाद को नहीं जान सकते हैं ।
तर्क : तर्क बुद्धि की एक क्षमता है जो हमेशा अपरोक्ष अनुभव पर ही आधारित होता है। आप स्वयं के पिछले अनुभवों से नए अनुभवों का सटीक अनुमान लगाने का प्रयास करते हैं। जैसे अगर कोई गर्म वस्तु आपके सामने रखी हो तो आप स्वयं के पुराने अनुभवों से जान सकते हैं कि उस गर्म वस्तु को छूने से आपका हाथ जल सकता है।
गुरु : अगर आपको गुरु का सानिध्य प्राप्त हुआ है तो आप भाग्यशाली हैं क्योंकि गुरु के बिना आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं है। गुरु के बताए निर्देशों का पालन करके आप ज्ञान तक पहुँच सकते है परन्तु ध्यान दीजिये गुरु केवल आपको इंगित करेंगे की किस दिशा में आगे बढ़ना है। कर्म आपको खुद ही करना है और अनुभव आपको खुद ही लेना है इसलिए गुरु भी आपको केवल ज्ञान की सही दिशा दिखा सकते है जहाँ अपरोक्ष अनुभव संभव होगा।
शास्त्र : शास्त्र भी गुरुओं की कृपा से हमें प्राप्त हुआ है जिसे पढ़ कर आपको केवल संकेत ही मिल सकता है की किस दिशा में अपरोक्ष अनुभव संभव है। इस साधन में भी कर्म और अनुभव आपको खुद ही करना होगा। कलयुग में कोई भी कुछ भी लिख कर प्रकाशित कर सकता है जो गलत भी हो सकता है इसलिए शास्त्र से ज्यादा से ज्यादा आपको अपरोक्ष अनुभव का संकेत ही मिल सकता है और इसलिए शास्त्र भी ज्ञान का साधन नहीं है।
उपमा : जब किसी को एक नए तरह का अनुभव देना होता है और अगर साधक को उसका अपरोक्ष अनुभव कभी न हो तो उपमा की मदद से ज्ञान देने का प्रयास किया जा सकता है जैसे अगर एक छोटा बच्चा कभी समुद्र नहीं देखा है तो उसे आप कह सकते है सागर तालाब जैसा होता है पर तालाब से बहुत गुना बड़ा होता है और जब वह बच्चा जब पहली बार सागर देखेगा तो समझ जायेगा परन्तु वह बच्चा एक बहुत बड़े तालाब को देख कर भी भ्रमित हो सकता है और सोच सकता है की यही समुद्र है। इसलिए उपमा भी ज्ञान का सही साधन नहीं है।
अर्थापत्ति : अर्थापत्ति के मदद से भी आप ज्ञान लेने का प्रयास कर सकते हैं जैसे अगर अभी दिन है तो आप आसानी से जान सकते है की अभी से १२ घंटे बाद रात निश्चित होगा। परन्तु अगर परिस्थिति थोड़ी जटिल करदे तो क्या आपको ज्ञान मिलेगा जैसे आप अगर उत्तरी ध्रुव में हो तो बहुत ज्यादा संभावना होगी की अभी अगर दिन है तो अगले १२ घंटे बाद भी दिन ही होगा। इसलिए अर्थापत्ति भी ज्ञान का सही साधन नहीं है।
अनुपलब्धि : अनुपलब्धि के मदद से भी आप ज्ञान लेने का प्रयास कर सकते हैं जैसे अगर आपके कार में ईंधन नहीं है तो आप अपने गंतव्य स्थान पर नहीं पहुंच सकते है परन्तु परिस्थिति बदल दी जाये जैसे आपका मित्र वहां अपनी कार ले कर आ जाये तो आप अपने गंतव्य तक पहुँच जायेंगे। इसलिए अनुपलब्धि भी ज्ञान का सही साधन नहीं है।
किसी भी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधक को उस विषय से जुड़े सात प्रश्न : क्या, क्यों, कब, कैसे, कहाँ, कौन, कितना का उत्तर अपने अपरोक्ष अनुभव और तर्क की सहायता से ढूंढ़ना होता है। जैसे किसी भी विषय पर आपको जानना होगा कि
वह विषय क्या है, इसका उत्तर विषय की परिभाषा होगी।
वह विषय क्यों है, इसका उत्तर विषय के उत्पत्ति का कारण होगा।
वह विषय कब से है, इसका उत्तर विषय के जन्म से संबंधित समय से होगा ।
वह विषय कैसे है, इसका उत्तर विषय के उत्पत्ति से जुड़ी प्रक्रिया से होगी।
वह विषय कहाँ है, इसका उत्तर इस विषय से जुड़े स्थान का बोध कराएगा ।
वह विषय कौन है, इसका उत्तर कोई व्यक्ति होगा।
वह विषय कितना है, इसका उत्तर इस विषय की मात्रा से जुड़ा होगा।
अपरोक्ष अनुभव और तर्क की सहायता से जब आप इन सात प्रश्नों के सही उत्तर ढूंढेंगे तो आपको उस विषय का ज्ञान प्राप्त हो जायेगा।
ऊपर जिस तरह से आपने ज्ञान के साधन को देखा उसी तरह से हर वो साधन जो आपके अपरोक्ष अनुभव और तर्क पर आधारित न हो वह अज्ञान के साधन हो सकते हैं। ये अज्ञान के साधन आप पर मतारोपण करके आपकी प्रगति को रोक सकते हैं। इन साधनों के कुछ उदाहरण समाचार पत्र, पुस्तकें, समाज, माता पिता, रिश्तेदार आदि हो सकते हैं।
सत्य के मानदंड
सभी मनुष्यों के लिए सत्य व्यक्तिनिष्ठ होता है जैसे एक मनुष्य को ठंडी का मौसम अच्छा लगता हो तो दुसरे को वर्षा ऋतु अच्छा लग सकता है, एक व्यक्ति को सुबह उठना पसंद हो तो दुसरे को रात देर तक जागना पसंद हो सकता है। अगर आपने दूसरा ब्लॉग पढ़ा है तो आप विश्लेषण कर पाएंगे की मनुष्यों की पसंद या नापसंद केवल एक मतारोपण है जो दूसरों के द्वारा या जीवन की परिस्थितियों द्वारा उन पर आरोपित हो गयी है। इसलिए सभी मनुष्यों का सत्य भिन्न होता है।
अगर सत्य सभी मनुष्यों के लिए भिन्न है तो फिर साधक किस सत्य को ढूंढ रहे हैं ? क्या संभव है की ऐसा मानदंड बनाया जा सके जिससे परम सत्य तक पहुँचा जा सके ?
एक साधक जो अद्वैत की परमावस्था तक पहुँचना चाहता है उसके सत्य के मानदंड उत्कृष्ट होने चाहिए जो उसे परम अवस्था तक पहुँचाने में मार्गदर्शक का काम करे और कहीं भी उसका साथ न छोड़े। साधक के सत्य के मानदंड ऐसे होने चाहिए जो उसे आसानी से सत्य और असत्य में भेद करने में मदद करें और ज्यादा से ज्यादा विषय पर लगाया जा सके।
सत्य को समझने के लिए आपको पहले उसे अपने अपरोक्ष अनुभवों के आधार पर उसे परिभाषित करना होगा और सही परिभाषा स्थापित करने के लिए आपको अपने आस पास के अनुभवों का विश्लेषण करना होगा। उदाहरण के लिए अगर आपके जान पहचान का एक व्यक्ति जब भी आपसे मिलता है तब वह अपना नाम पिछली बार से अलग बताता है तो क्या बताये हुए नाम को आप सत्य मानेंगे शायद नहीं क्योंकि आप तर्क से जान सकते है की उसका नाम फिर बदल जायेगा। इसलिए सत्य केवल उसे मान सकते है जो बदला न सके।
एक और उदाहरण लेते है अगर एक व्यक्ति जो जन्म से ठन्डे प्रदेश में रहा है शायद उसे यह सत्य लगे की सम्पूर्ण पृथ्वी ठंडी है परन्तु जैसे ही उसे एक गर्म मरुस्थल का अपरोक्ष अनुभव होगा वैसे ही उसका भ्रम टूट जाएगा और उसका सत्य और भी उच्च स्तर का हो जायेगा। वह जान पायेगा की पृथ्वी पर अलग जगह पर अलग वातावरण होता है। इसलिए सत्य उसे ही कह सकते है जो पूर्ण हो जिसमे नए संस्करण की संभावना न हो।
वैसे ही अगर आपके सामने एक टमाटर रखा है तो क्या आप उसे सत्य कह सकते है अगर वह टमाटर सत्य है तो उसे कभी बदलना नहीं चाहिए पर आप अपने अपरोक्ष अनुभव से देख पाएंगे कि आपके सामने रखा हुआ टमाटर कुछ ही दिनों में ख़राब होकर सर जायेगा और कुछ ही दिनों में गायब हो जायेगा तो फिर उसे सत्य कह सकते हैं क्या? आप शायद यह सोच रहे हो की टमाटर कुछ दिनों के लिए तो सत्य था। परन्तु आप यह भी देख पा रहे होंगे की टमाटर को सत्य सिद्ध करने के लिए आपको सीमित समय का सहारा लेना पड़ रहा है। इसी तरह से लम्बी आयु की वास्तु जैसे सूर्य या ब्रम्हांड सभी नश्वर हैं अगर आप समय की गति को बढ़ा पाए तो आपको लम्बी से लम्बी आयु की वस्तुओं का भी मिथ्या रूप दिख पड़ेगा। ऐसे सत्य जिनका अस्तित्व किसी परिस्थिति पर आधारित है उन्हें केवल विसत्य अर्थात विशेष सत्य कहते है सत्य नहीं। सत्य किसी भी परिस्थिति में सत्य ही होगा उसमें परिवर्तन नहीं होगा। सत्य हमेशा मूल ही होगा जो हर परिस्थिति के परे हो।
इसी तरह एक और उदाहरण स्वप्न का लेते है जैसे हर बार जब आप स्वप्न देखते हैं वह पिछले स्वप्न से बहुत ही भिन्न दीखता है इसलिए आप समझ जाते हैं की स्वप्न सत्य नहीं है। अगर आप एक ऐसे व्यक्ति से मिले जो 10 साल सोता हो और केवल 5 मिनट के लिए ही जागता हो तो उस व्यक्ति को जागृत अवस्था भी मिथ्या लगेगी क्योंकि हर बार जब वह जागता है उसके अनुभव पिछली बार से बहुत ही भिन्न हो चुके होते हैं। इसलिए सत्य अवस्थाओं के भी परे होना चाहिए।
ऊपर सभी उदाहरणों से आप देख पाएंगे कि सत्य को सत्य बने रहने के लिए उसका अपरिवर्तनशील होना सबसे जरूरी। इसलिए परिवर्तन को सत्य के मानदंड के रूप में लिया जा सकता है अर्थात सत्य केवल उसे ही कह सकते है जो सभी के लिए एक हो, जो परिस्थिति और अवस्था बदलने पर भी नहीं बदले। यह मानदंड बहुत ही सरल और साथ ही साथ बहुत ही कठोर भी है। इस मानदंड की सहायता से साधक अपने आध्यात्मिक प्रगति को तेज कर सकते हैं।
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